पोखरण परमाणु परीक्षणों का विरोध सिर्फ शान्ति के सरोकार से नहीं बल्कि इस देश के लोकतंत्र के लिहाज़ से भी ज़रूरी है. भारत की आर्थिक संप्रभुता और सारे संसाधन बेच खाने वाली पार्टी ने परमाणु टेस्ट कर के सैन्य-राष्ट्रवाद का फर्जी गुब्बारा फुलाया और भारत की राजनीति ने इस दिन एक निर्णायक दक्षिणपंथी राह पकड़ ली. 1998 में ही इस बात को रेखांकित करते हुए अनिल चौधरी जी ने यह लेख लिखा था.
जो लोग मोटर गाड़ी चलाना जानते हैं उन्हें पता है कि गेयर बदलने से पहले क्लच दबाना जरुरी है। क्लच दबाते ही गेयर बाक्स पर उसकी पकड़ ढ़ीली पड़ती है और गाड़ी हलकी महसूस होने लगती है। इसी मौके पर गेयर बदल लिया जाता है और फिर क्लच को धीरे-धीरे छोड़ा जाता है और उसकी पकड़ एक बार फिर मोटर गाड़ी की गति के बढ़ने या घटने का निर्धारण करने लगती है। कोई देश या उसकी सरकार चलाना भी मोटर गाड़ी चलाने जैसा ही प्रतीत होता है। हर बार उसकी गति, ताल व लय बदलने से पहले कोई न कोई क्लच दबाना ही पड़ता है।
अब अगर कोई देश पचास सालों से निर्गुट राष्ट्रों का सरगना रहते हुये आलमी मसायिल पर मोटा-मोटी सोवियत खेमें के साथ खड़ा होता रहा हो और उसके फौरी हुक्कमरां मेजारटी न होते हुये भी उसे अगर अमरीकी खेमें में पहुंचाने की ठान लें तो उसके लिये तो यह गेयर बदलने जैसा ही होगा। इस बार के सरकार चलाने वाले राष्ट्रवाद पर अपना कापी राईट मानने वाले हैं सो उन्होंने यह गेयर बदलने के लिये परमाणु विस्फोट कर “राष्ट्रीय स्वाभिमान” का क्लच दबा डाला। मई 11 और 13 को पोखरन में क्लच दबा, “बुद्ध मुस्कराये”, और सारी दुनियां में हड़कम्प मच गया। यह क्लच इतनी खूबसूरती से दबाया गया कि किसी को कानों-कान ख़बर न हुयी, आखों-आंख सूझा नहीं। मंत्रिमण्डल के साथियों, सरकार में साझेदारों किसी को नहीं। पूरी दुनिया में अगर किसी को ख़बर थी तो वह था नागपुर स्थित एक “सांस्कृतिक (गैर राजनैतिक) संगठन” का अख़बार। अमरीका ने तो शायद आंखें ही फेर ली। ख़ल्क में तैरते उनके कैमरे और उनका खुफिया तंत्रा जो चौबीसों घंटे मां वसुन्धरा की निगरानी में लगे रहते हैं, इन विस्फोटों के बारे में कुछ न जान सके। भारत के प्रति उनकी यह बेरूख़ी कुछ गले नहीं उतरती।
रूठने-मनाने का नाटक विश्व मंच पर खेला जाने लगा। दुनिया के स्वयंभू कोतवाल अमरीका ने भारत और पाकिस्तान को आपसी मसायिल को निपटाने और सी0टी0बी0टी0 पर हस्ताक्षर करने की हिदायत की। सहायता रोकने की धमकियां दी गयीं, फिर निजी निवेशों को इन धमकियों की परिधि के बाहर किया गया, मानवीय आधार पर भी तमाम कर्जों और अनुदानों को जारी रखने का अधिकार राजनेताओं को सौंप दिया गया जिससे वे इनका इस्तेमाल सौदेबाजी में कर सकें। कुल मिला कर हाल “बड़ा जोर सुनते थे हाथी की दुम का, पास जा के देखा तो धागा बंधा था” वाला ही रहा।
इधर देश के अंदर, भूतपूर्व और अ-भूतपूर्व तमाम सांसदों, मंत्रियों व प्रधानमंत्रियों ने वैज्ञानिकों की शान में कसीदे पढ़े, श्रेय लेने की जुगत लगायी और कुछ ने दबी जुबान लताड़ भी सुनायी। “गैर राजनैतिक-सांस्कृतिक संगठनों” ने स्वाभिमान दिवस मनाने के आवाहन किये, अल्पसंख्यक समुदायों में दहशत फैलाने की कोशिशें की। देशवासियों को सूचित किया गया कि उन्हें उस पड़ोसी मुल्क चीन से ख़तरा है जिसके साथ भारत का पिछला युð सिर्फ पैंतीस वर्ष पहले हुआ था और उन्हें खतरा है पड़ोसी पाकिस्तान से भी जिसके साथ पिछले सत्ताईस साल में कोई युð नहीं हुआ है। इन दोनों ख़तरों को दूर रखने के लिये परमाणु विस्फोट करना और भारतीय सेना को परमाणु हथियारों से लैस करना जरुरी था। एक बार हमारे पास परमाणु हथियार होंगे तो ये दुश्मन जिनसे चौथाई शताब्दी भर यूं भी कोई लड़ाई नहीं हुई, आगे कभी हमला करने की नहीं सोचेंगें।
कुछ ने यह सब माना और परमाणु विस्फोटों पर गर्व महसूस किया भी, कुछ को यह सोंच कर कि ‘राहतें और भी हैं राहत -ए- विस्फोट के सिवा’ इस पर ग्लानि भी हुई। जिस देश में पचास साल की आजादी के बाद भी हर बच्चा स्कूल न पहुंच पाया हो, हर एक मां को पर्याप्त पोषण न मिलता हो, युवाओं को रोज़गार न हो, काम के वाजिब दाम न मिलते हों, वहां अगर लोग परमाणु विस्फोट जैसे खर्चीले उत्सव का मर्म न समझ सकें और इस महती अनुष्ठान पर गर्व महसूस न कर सकें तो उन्हें इस नादानी के लिये माफ़ कर देना चाहिये। लेकिन बिजली-पानी की क़िल्लत और विस्फोट की बुलंदियों से भी ऊपर उछलती आलू-प्याज़ की कीमतों ने भी गर्वोत्सव की किरकिरी कर दी।
यूं भी ‘कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कु़नबा जोड़ा’ वाले मंत्राीमण्डल की संसदीय प्रजातंत्रा में बहुत सारी सीमायें होती हैं। एक तरफ विश्व बैंक व आई.एम.एफ. के साथ हुये करारों का वलवला, दूसरी तरफ़ अंर्तराष्ट्रीय अनुबंधों का दर्द और तिस पर सरकार के साझेदारों की कलह, आखिर कुछ भी कर पाना सम्भव नहीं था इस देश या इस देश की जनता के लिये। राष्ट्रीय स्वाभिमान का क्लच यहां भी डूबते को तिनके का सहारा साबित हुआ। गांव-गांव में फैली सांस्कृतिक संगठनों की टुकड़ियों ने अलख जगाई – कुछ नहीं, बहुत कुछ किया है इस देश और इसकी जनता के लिये इस सरकार ने परमाणु विस्फोट कर के ! विस्फोट के इस सांस्कृतिक कर्म पर गर्व न कर पाने वालों के देश प्रेम में ही खोट है! ऐसे लोगों को इस देश में रहने का कोई अधिकार नहीं। खैर मनाइये कि नागरिकता का मामला राजनैतिक मामला है, सांस्कृतिक नहीं, वरना वहुत से लोग शायद नागरिकता ही खो बैठते। सरकार के निकम्मेपन को ढकने के अलावा राष्ट्रीय स्वाभिमान के क्लच ने स्वदेशी का गेयर बदलने की भी स्थितियां पैदा कर दिखाईं। परमाणु विस्फोट के बाद चन्द हफ्तों में ही कोयले और तेल के असीमित भण्डार विदेशी कम्पनियों को सौंप दिये गये। ग़जब की कारीगरी है, एक बार ही क्लच दबा कर कितने ही गेयर बदल डाले!
पचास सालों के इंतजार के बाद इस देश को कुशल नेतृत्व और सुशासन से नवाजा़ गया। आज यह नेतृत्व और शासन विश्व बैंक द्वारा कर्जे की किश्त रिलीज़ किये जाने पर खुश है, अमरीकी व्यापारियों व सांसदों का समर्थन प्राप्त कर गौरवान्वित है और अमरीका द्वारा परमाणु शक्ति के रुप में स्वीकार किया जाना हमारा राष्ट्रीय लक्ष्य है। राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिये अमरीकी संस्तुति के लिये भारत भूमि इतनी लालायित न दिखी थी आज से पहले। यह गेयर बदल जाने के लक्षण मात्रा हैं। अभी इन्हें अमरीकी प्रेसीडेन्ट क्लिन्टन की प्रस्तावित भारत यात्रा तक परिपक्व होना है जिससे पड़ोसी राष्ट्रों के हमलों से मुक्त भारत परमाणु अप्रसार संधि और परमाणु परीक्षण प्रतिबन्ध संधि पर अपने हस्ताक्षर का तोहफा इस नये आक़ा को दे सके।
राष्ट्रीय स्वाभिमान का क्लच दबा कर ऐसा दक्षिणपन्थी गेयर बदला है इस सरकार ने कि लगता है कि देश और उसकी सरकार की मोटर गाड़ी ही लेफ्ट हैण्ड ड्राइव से बदल कर राइट हैण्ड ड्राइव हो गयी है।
नामाबर अगस्त 1998 अंक में प्रकाषित